बॉलीवुड एक विश्लेषण:अच्छे साफ सुथरे सिनेमा की सच मे डिमांड होती तो आज बॉलीवुड में फूहड़ता, अश्लीलता और नग्नता न परोसी जाती!
हर साल तकरीबन दो हजार से ज़्यादा फिल्में बनाई जाती है। बीते 50 सालों में बीस फिल्में भी ऐसी नही बनी जिन्हें दुनिया की सर्वकालिक महान फिल्मों में जगह मिली हो।
सिनेमा एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसका बड़ा असर समाज पर पड़ता है। आज बॉलीवुड अपने महत्व को खोता जा रहा है बैलेंस सिनेमा दिखाने की जगह आज बॉलीवुड में सिर्फ अश्लीलता फूहड़ता गाली गलौज और नग्नता परोसी जा रही है। पहले एक साफ सुथरी फ़िल्म पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती थी आज एक फ़िल्म के एक गाने तक को आप परिवार के साथ बैठकर देखने मे हिचकिचाहट महसूस करते है।
ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक इंडस्ट्री जिसने जाने अनजाने एक बेहतरीन सिनेमा को दरकिनार कर दिया है और टीआरपी,वीवर्स,दर्शक बटोरने की होड़ में समाज मे अश्लीलता फैलाने का काम करने लगी है।आश्चर्य इस बात का है कि सोशल मीडिया में जिन आपत्तिजनक दृश्यों या गानों का बॉयकॉट किया जाता है उन्हें पब्लिसिटी के साथ साथ करोड़ो का बिजनेस भी मिल रहा है। इसका सीधा मतलब तो यही है कि जो लोग सोशल मीडिया में फूहड़ता अश्लीलता नग्नता का विरोध करते है वही लोग उन दृश्यों को उन फिल्मों को गानों को खूब देखते भी है,इसीलिए ऐसे गाने और फिल्में रिकॉर्ड तोड़ प्रसिद्ध हो जाती है। और हैरानी देखिए सोशल मीडिया में फिर यही लोग साफ सुथरी फिल्मों का फेवर करते दिखाई देते है जबकि बॉलीवुड में अगर कोई देशप्रेम या समाज को अच्छा संदेश देने वाली कोई फ़िल्म बनती है तो उसको स्क्रीनिंग तक नही मिलती,वो फिल्में अवार्ड्स तक से दूर रख दी जाती है। हाल ही में पठान' का पहला गाना 'बेशर्म रंग' हुआ. गाना रिलीज होते ही विवादों में भी आ गया, वजह आप सब जानते ही हैं. कमाल की बात ये है कि एक तरफ गाने को लेकर कंट्रोवर्सी हो रही थी वहीं दूसरी ओर 'बेशर्म रंग' ने अपने 100 मिलियन व्यूज पूरे कर लिए।
'बेशर्म रंग' ने हर किसी पर अपना रंग चढ़ा दिया क्या आम जनता, क्या सेलेब्स, हर कोई 'बेशर्म रंग' पर झूमता दिख रहा है। गाने को रिलीज हुए लगभग कई दिन हो चुके हैं और ये गाना अब तक यूट्यूब पर नबंर वन ट्रेंड कर रहा है. यही नहीं, तमाम विवादों के बीच 'बेशर्म रंग' ने अपने 100 मिलियन व्यूज भी पूरे कर लिये हैं. इसका क्या मतलब निकाला जाए? विरोध करने वालो ने भी गाने को अप्रत्यक्ष रूप से हिट करवा दिया।
इसका एक उदाहरण प्रसिद्ध गीतकार मनोज मुंतशिर का लिखा देशभक्ति गीत तेरी मिट्टी है। फिल्म केसरी के गाने 'तेरी मिट्टी'' को फिल्मफेयर अवॉर्ड नही मिला जबकि इस गीत ने करोड़ो लोगो का दिल जीत लिया हर आंख में आंसू भर दिए इस गीत की जगह फिल्म गली ब्वॉय के अपना टाइम आएगा तो रैप सांग को फिल्मफेयर अवॉर्ड मिल गया। अपना टाइम आएगा एक ऐसा रैप था जिसमे सलैंग् यानी बाजारू भाषा का कूट कूट कर प्रयोग किया गया था।
वही तेरी मिट्टी जज्बाती गीत था देशभक्ति से ओतप्रोत गीत था, इस महान गीत को अवार्ड न मिलने पर मनोज मुंताशिर ने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए इंस्टाग्राम पर अपना स्टेटमेंट तक जारी किया था और अवॉर्ड शो का बहिष्कार करने का फैसला किया था। उन्होंने लिखा था- डियर अवॉर्ड्स, अगर मैं पूरी जिंदगी भी कोशिश करूं तो भी मैं 'तेरी मिट्टी' से ज्यादा बेहतर गाना नहीं लिख पाऊंगा।
बॉलीवुड आज बाजारू हो गया है डिमांड सप्लाई का क्रॉस कनेक्शन आज बॉलीवुड में साफ दिखाई दे रहा है जिस चीज की डिमांड ज़्यादा होती है बॉलीवुड वही बना रहा है,सभ्य समाज के सभ्य लेकिन दोगले लोग जिस सिनेमा को पसंद करते है उसी का विरोध सोशल मीडिया में करते दिखाई दे रहे है।
पिछले कई वर्षो से लगातार बॉलीवुड में ऐसी फिल्मे बन रही है जो सारी मर्यादाये तोड़ रही है अश्लीलता नग्नता फूहड़ता द्विअर्थी संवाद गाली गलौच से भरी फिल्मों का अब ट्रेंड चल पड़ा है ऐसी फिल्मे बनाकर समाज एवम भारतीय सभ्यता को खराब करने का काम किया जा रहा है ।
परिवार के साथ अब कोई भी फ़िल्म देखना मुमकिन नही पता नही कब अश्लीलता या भद्दे संवाद आ जाये जिससे परिवार के लोगो को शर्मसार होना पड़े ।
सरकार ने 800 से ज़्यादा पोर्न साइट्स पर भारत मे बैन लगा दिया है जोकि एक अच्छी पहल है क्योंकि ऐसी फिल्में कही न कही बलात्कार के लिये प्रेरित करने का काम करती है कई बार प्रकाश में आया है की पोर्न देखने के बाद लोग बच्चो और महिलाओ से बलात्कार करते है जिस प्रकार से पोर्न साइट्स पर बैन लगाया गया है उसी प्रकार से बॉलीवुड की द्विअर्थी संवाद वाली अश्लीलता परोसती फिल्मों पर भी अतिशीघ्र बैन लगाया जाये क्योकि ये भी समाज को दूषित एवम भद्दी मानसिकता की ओर धकेलने का काम कर रही है ।
सेन्सर बोर्ड का यही काम होता है के वो ऐसी फिल्मों पर नज़र रखे जिससे समाज के ऊपर गलत प्रभाव पड़ता हो समाज मे गलत संदेश जाता हो उन्हें तुरंत ऐसी फिल्मों पर रोक लगा देनी चाहिये किंतु बोर्ड भी धड़ल्ले से ऐसी फिल्मों को देश मे चलने का सर्टिफिकेट दे देता है जोकि गलत है देश मे ऐसी फिल्मे बननी चाहिये जो परिवार के साथ भी बैठकर देखी जा सके लोगो के मनोरंजन एवम समाज को एक बेहतर संदेश देने का काम करे,लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसी साफ सुथरी फिल्मों को दर्शक नही मिलते।
ऐसी फिल्मों से न केवल वयस्क बल्कि बच्चो पर भी बुरा असर पड़ता है बच्चे हमारे देश का भविष्य है उन्हे समाज एवम परिवार में एक बेहतर वातावरण देना हमारी अहम ज़िम्मेदारी है ताकि उनका ध्यान अपनी पढ़ाई पर ही रहे नाकि अश्लीलता फैलाती फिल्मों पर जिसकी वजह से उनके मन मस्तिष्क में किसी भी प्रकार से बुरे विचार आने की संभावना न बढ़ जाये और वो कुछ ऐसा कर जाये जो उन्हें नही करना चाहिये ।
इसलिये सरकार देशहित मे ऐसी बॉलीवुड फिल्मो के बनाने पर भी बैन लगाये जिसमे नग्नता , द्विअर्थी संवाद , भद्दी गाली गलौच हो ऐसी फिल्में सभ्य समाज का हिस्सा नही हो सकती बल्कि ये समाज को दूषित मानसिकता देने का काम कर रही है ।
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान पर एक फ़िल्म बनी जो 14 वर्षीय नरेन पर केंद्रित थी जो जीविकोपार्जन के लिए चाय बेचता है, और अपने गांव को घातक कोरोनावायरस से बचाना चाहता है।नरेन बड़ा होकर सरपंच बनना चाहता है। फ्लैशबैक से पता चलता है कि नरेन से भी छोटा नरेन स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेता है, जबकि थोड़ा बड़ा नरेन चाय बेच रहा है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिल्म सूक्ष्मता में ज्यादा विश्वास नहीं करती है क्योंकि पीएम मोदी के समानांतर काफी स्पष्ट हैं। नरेन की स्कूल वर्दी आरएसएस की वर्दी की नकल करती है, जिसके पीएम मोदी सदस्य थे। नरेन के धैर्य और दृढ़ संकल्प पर जोर देने के लिए 'नरेन ने सोच ली तो कर के ही मानेगा' जैसी पंक्तियां हैं। और नरेन ने अब ठान लिया है कि वो कोविड-19 वायरस को अपने गांव में नहीं घुसने देंगे. फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित होने का दावा करती है। ये फ़िल्म बीते दो सालों में जब कोरोना ने हम सब को घरों में कैद कर दिया था और लोग मर रहे थे एक दूसरे से बच रहे थे उस याद को ताजा करती है,साफ सुथरी फ़िल्म थी लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण इस फ़िल्म को स्क्रीनिंग तक नही मिली,ये फ़िल्म रिलीज ही नही हो पाई। सिनेमाघरों के मालिकों तक ने कहा कि ऐसी फिल्मों को देखने कौन आएगा साफ सुथरी फिल्मों की डिमांड है ही नहीं। वही बाल नरेन के निर्माता दीपक मुकुट कहते हैं, “दर्शकों के लिए इस तरह की प्रासंगिक अवधारणा लाना समय की मांग है। एक उद्योग के रूप में, हमें ऐसी संदेश वाली फिल्मों का समर्थन करना चाहिए जो पूरे समाज को प्रभावित करें। निर्माता दीपक ने भले ही समाज को अच्छी फिल्म देनी चाही लेकिन यही समाज ऐसी फिल्मों को प्रमोट तक नही करता। बीजेपी चाहती तो अपने स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा देने के लिए ये फ़िल्म लार्ज स्केल पर रिलीज करवा सकती थी लेकिन ऐसा भी नही हुआ।इसीलिए वो समय दूर नही जब साफ सुथरी फिल्मों की डिमांड भी खत्म हो जाएगी और अश्लीलता भरी फिल्में जिन्हें A ग्रेड कहा जाता था वो मेन स्ट्रीम की फिल्में बन जाएंगी और बॉलीवुड में बॉयकॉट के नाम पर कुछ नही रहेगा क्योंकि पब्लिक डिमांड पर सब कुछ गंदा ही परोसा जाएगा